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१५ मई, १९५७
मां, सृष्टिके आरंभसे ही नर और मादामें यह भेद क्यों रहा है?
किस सृष्टिके आरंभसे? वत्स, तुम किस सृष्टिकी बात कर रहे हो?... पृथ्वीकी?
जी !
पहली बात तो यह है कि यह बात बिलकुल ठीक नहीं है । ऐसी जीवजातेयां है जिनमें ऐसा कोई भेद नहीं है; और आरंभमें ऐसा कोई था भी नहीं -- यह हुई पहली बात । दूसरी यह कि पृथ्वीकी यह सृष्टि विशुद्ध रूपसे भौतिक सृष्टि है, और एक प्रकारसे विश्व-सृष्टिका स्थूल और घन रूप है; और विश्व-सृष्टिमें यह भेद आवश्यक रूपसे नहीं है, वहां सब प्रकारकी संभावनाएं मौजूद है, सब संभव चीजों वहां होती रही है और अब भी होती है । यह भेद सृष्टिका सारा आधार नहीं है ।
इसलिये तुम्हारा प्रश्न टिकता नहीं, क्योंकि यह सही नहीं है ।
तो पार्थिव सृष्टिमें ऐसा क्यों है?
मैंने अभी तुम्हें बताया कि आरंभसे ऐसा नहीं है । कोई भी जीवशास्त्री
९८ तुम्हें बना सकता है कि ऐसी जीव जातियां है जो इस प्रकारकी बिलकुल नही है । इस साधनाका प्रयोग 'प्रकृति'ने किया है -- वह कई परीक्षण करती है, उसने सब संभव जीव-जातियां बनायी हैं, एक' ही आकारमें दो- को गढ़ है, सनी संभव चीजे उत्पल की है... यह प्रयोग जारी है क्योंकि संभवत: यह उसे अधिक व्यावहारिक लगा! मैं नहीं जानती । बस, इतना ही ।
परंतु दूसरे लोकोंमें, यहांतक कि पार्थिव जगत्में, पार्थिव जगतके सूक्ष्म लोकोंमें, सूक्ष्म भौतिकतकमें और प्राणिक तथा मानसिक जगतोंमें यदि ऐसे प्राणी है जिनमें इस प्रकारका विभेद है तो ऐसे प्राणी भी है जो न नर हैं न मादा । ऐसा है । उदाहरणार्थ प्राणिक जगत्में लिंगका भेद बहुत कम पाया जाता है, सामान्यतः, वहांकी सत्ताओंमें लिंग-भेद नहीं होता । और मुझे प्रबल रूपमें ऐसा लगता है कि देवलोक, जैसा कि मनुष्योंने उसका बरना किया है, बहुत कुछ मानव विचारसे प्रभावित है । जो भी हो, ऐसे भी बहुत-से देवता हैं जिनका कोई लिंग नहीं । सभी देशोंके देवकुलोंके बारेमें कही जानेवाली अधिकतर कहानियां ऐसी ही है जो मानव विचारसे प्रबल रूपमें प्रभावित है । तो, यह भेद प्रकृतिका, अपना उद्देश्य पूरा करनेका, एक साधन है, बस, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । हमें इसको इसी रूपमें लेना चाहिये । यह कोई सनातन' प्रतीक नहीं है -- बिलकुल नही ।
हां, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इस भेदको बहुत महत्व देते है -- यदि इससे उन्हें संतोष मिलता हो तो वे इसे बनाये रख सकते हैं । पर यह अंतिम या सनातन बिलकुल नहीं है... न अपने-आपमें पूर्ण है । शायद यह अधिमानसका आदर्श रहा हो, यह संभव है... पर वहां भी संपूर्ण रूपमें नहीं, केवल आशिक रूपमें । लेकिन फिर भी जो लोग इस भेदपर मोहित है वे इसे बनाये रख सकते है यदि यह उन्हें पसंद हो! इससे उन्हें खुशी होती हो... इसके अपने लाभ है, अपनी हानियां है, बहुत-सी हानियां है ।
मां, तो प्राण-जगत्की शक्तियां इससे क्यों बची हुई है?
क्रया?
आप कहती है कि यह भेद प्राणिक जगत्में नहीं है ।
मैं यह नहीं की है, मैं कहती हू कि यह सामान्य नियम
९९ नहीं है और यह कि, इसके विपरीत तुम्हें वहां लिगभेदवाले प्राणियोंकी अपेक्षा ऐसे प्राणी ज्यादा मिलते है जिनमें लंगभेद नहीं है । और यह भी संभव है कि प्राण-जगत्में यह भेद पृथ्वीके प्रभावसे आया
तो, अब? इन प्रश्नोंका कारण क्या है और तुम इनसे क्या सिद्ध करना चाहते हो? मैं तो यह जानना चाहती हू । तुम्हें यह किसने बताया कि विश्वके आरंभसे ही ऐसा है? उन लोगोंने जो इसे इसी तरह बनाये रखनेके लिये बड़े उत्सुक हैं? मैं फिर कहती हू, यदि इससे उन्हें संतोष मिलता है तो वे इसे बनाये रख सकते हैं, कोई इसमे बाधा न डालेगा । यदि इससे उन्हें प्रसन्नता होती है तो यही सही!
''मनके जिन स्तरोंकी हम आज धारणा करते हैं उनसे भी अधिक ऊंचे स्तर हैं और हमें एक दिन उनतक पहुंचाना ही होगा, बल्कि उनसे भी आगे अधिक ऊंची ऊंचाइयोंकी ओर, आध्यात्मिक अस्तित्वकी ओर ऊपर उठना होगा । और ज्यों- ज्यों हम ऊपर उठते जायं, हमें अपने निम्न अंगोंको भी उन- की ओर खोलना होगा और उन्हें प्रकाश और शक्तिकी श्रेष्ठतर एवं उच्चतर ऊर्जस्वितासे भर देना होगा । अपने शरीरको भी हमें आत्माका अधिकाधिक और यहांतक कि संपूर्ण रूपमें सचेतन ढांचा और यंत्र, एक सचेतन प्रतीक, मुहर- छाप और शक्ति बनाना होगा । और जसे-जैसे वह इस पूर्णतामें बढ़ता है, उसकी गतिशील क्यिा और आत्माके प्रति अनुक्रिया और सेवा करनेकी शक्ति तथा उसका क्षेत्र भी बढ़ना चाहिये । उसपर आत्माका अधिकार भी बढ़ना चाहिये । साथ ही उसकी शक्तिके विकसित और प्रयाससे प्राप्त, दोनों भागोंमें, यहांतक कि अपने-आप होनेवाली, उनमें भी जो नी- चेतनाकी यांत्रिक गतियां मालूम होती है, आत्माके कार्यकी नमनीयता बढ़नी चाहिये । लेकिन यह एक सच्चे रूपांतरके बिना नहीं हो सकता । और मन, प्राण तथा शरीर तकका रूपांतर ही वास्तवमें बह परिवर्तन है जिसकी ओर हमारा विकास गुप्त रूपसे बढ़ रहा है । इस रूपांतरके बिना पृथ्वीपर दिव्य जीवन अपनी पूर्ण समग्रताके साथ प्रकट नही हो सकता । इस रूपांतरमें स्वयं शरीर भी एक अभिकर्ता और हिस्सेदार बन सकता है । निःसंदेह, यह संभव है कि
१०० आत्मा अपनी स्थूल क्रियाओंके अंतिम या सबसे निचले आधार- के रूपमें एक निष्क्रिय और अपूर्ण रूपसे सचेतन शरीरके द्वारा भी अपने-आपको पर्याप्त मात्रामें अभिव्यक्त कर सके, पर वह पूर्ण था आदर्श अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । शायद पूर्ण रूपसे सचेतन शरीर पार्थिव रूपांतरकी ठीक-ठीक पार्थिव पद्धति और प्रक्रियाको भी ढूंढकर निकाल सकें, और उसे क्रियान्वित कर सके । निश्चय ही, इसके लिये आत्माके परम प्रकाश, शक्ति और सर्जनकारी आनंदको ब्बक्तिचेतनाके शिखरपर स्थापित हो जाना चाहिये और नीचे शरीरमें अपना आदेश- निर्देश भेजना चाहिये.. .''
(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
मां, क्या शरीरका रूपांतर मन और प्राणके रूपांतरके बाद ही बन सकेगा या स्वतः ही हो जायेगा?
सामान्यता: इस प्रकारका रूपांतर ऊपरसे नीचेकी ओर होता है, नीचेसे ऊपरकी ओर नहीं ।
स्पष्ट ही यदि तुम पक्के जड़वादी हो तो तुम कहोगे कि आकारका अपना उत्कर्ष ही नयी क्षमताओंको जन्म देता है । पर यह बिलकुल ठीक नहीं है । चीजे सामान्यत: ठीक इसी तरीकेसे नहीं होतीं । मैं तुम्हें चुनौती देती हू, तुम मनके रूपांतरसे पहले अपने शरीरका रूपांतर कर लो । जरा प्रयत्न करो, देखें!
मनके दखलके बिना जब तुम एक अंगुली नहीं हिला सकते, एक शब्द नहीं बोल सकते, एक कदम नहीं चल सकते तो यदि तुम्हारा मन पहले ही रूपांतरित न हो चुका हो तो तुम किस साधनासे अपने शरीरके रूपा- तरकी आशा करते हों '
अगर तुम अज्ञानकी अवस्थामें ही रहो -- संपूर्ण अज्ञान कह सकती हू, जिसमें अभी तुम्हारा मन है, -- तो तुम अपने शरीरके रूपांतरका विचार ही कैसे कर सकते हो '
कभी-कभी हम शरीरमें एक प्रबल प्रतिरोध पाते है । इस- का क्या कारण है?
मनका
कोई दखल वहां नहीं होता,
फिर
भी प्रतिरोध रहता है ।
सबसे बड़ा प्रतिरोध भौतिकसे ही आता है,
भौतिकका एक विशेष प्रतिरोध है । सबसे अधिक प्रतिरोध कहांपर है?... तुम्हारे सिरमें । (हंसी) । यह किसी विशेष व्यक्तिकी बात नहीं है । परिवर्तनको अधिकतर अस्वीकार करनेवाली चीज ही है भौतिक मन - जो बहुत हठी है, समझे! वह अपने सामर्थ्यकी निश्चयतामें बड़ा ही हठीला है, ऊफ!... इसका अपने अज्ञानके प्रति, अपने सोचने, देखने और न जाननेके तरीकेका प्रति जो अनुराग है उसमें यह बहुत ही हठीला है ।
बस?... अच्छा! तो हम अब और कुछ नहीं कहेंगे ।
मैं इसका इलाज जानना चाहता हू ।
ओह! ओह!... (लंबा मौन)... बस, यही इलाज है ।
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